
देता ना दशमलव भारत तो; यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था।
शून्य यानी कुछ भी नहीं -आकाश या स्पेस। पर यह एक अंक भी है।जब किसी अन्य अंक के सामने लगा दे तो यह बढ़ता ही जाता है।यह है शून्य से सृष्टि की रचना।जब किसी अंक को शून्य से भाग दे तो अनंत प्राप्त होता है।शून्य एक दार्शनिक अवधारणा भी है और शून्य से ही विज्ञान के आविष्कार भी है।
रोमन अंकों में शून्य ना होने से वे कितने जटिल लगते है। उनका जोड घटाव , गुणा -भाग कितना मुश्किल लगता है...।शून्य लग जाने से दस दस के समूह में संख्या गिनना कितना आसान हो जाता है। इसी तरह दशमलव से सूक्ष्म से सूक्ष्म संख्या की गणना संभव हो जाती है। इस तरह यह संसार जितना सूक्ष्मतिसूक्ष्म है उतना ही विशाल -महाविशाल है। इसकी गणना के लिए दशमलव और शून्य की अवधारणा की गई।
किसी भी अंक में शून्य जोड़ो या घटाओ तो वह उतना ही रहेगा और उसे शून्य से गुणा करे तो वह भी शून्य बन जाता है। पर शून्य से भाग देने पर वह अनंत हो जाता है।इसका अर्थ है अपने कर्मों में पुण्य कर्म जोड़ो या घटाओ कलयुग में फर्क नहीं पडेगा। कइ बार जोड़ने यानी गुणा करने पर भी नतीजा शून्य यानी और भी निराशाजनक हो सकता है। पर उन कर्मो को भगवान को अर्पित कर देने से यानी शून्य से भाग देने पर नतीजा अनंत होता है।इस तरह शून्य एक दर्शन है जिसे जितना सोचा जाए उतना ही विशाल लगता है।
सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट्ट ने कहा 'स्थानं स्थानं दसा गुणम्' अर्थात् दस गुना करने के लिये (उसके) आगे (शून्य) रखो। और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धांत का उद्गम रहा होगा। आर्यभट्ट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रंथ 'आर्यभट्टीय' के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था (इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने के अवसर मिला)। प्रचीन बक्षाली पाण्डुलिपि में, जिसका कि सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परंतु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट्ट के काल से प्राचीन है, शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त के काल से भी पूर्व के काल में होता था।
शून्य तथा संख्या के दशमलव के सिद्धांत का सर्वप्रथम अस्पष्ट प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रंथ ब्रह्मस्फुट सिद्धांत में पाया गया है। इस ग्रंथ में ऋणात्मक संख्याओ (negative numbers) और बीजगणितीय सिद्धांतों का भी प्रयोग हुआ है। सातवीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल था, शून्य से सम्बंधित विचार कम्बोडिया तक पहुँच चुके थे और दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गये।
इस बार भारत में हिंदुओं के द्वारा आविष्कृत शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और संपूर्ण विश्व को जानकारी मिली। मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया। अंततः बारहवीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा।
भारत का 'शून्य' अरब जगत में 'सिफर' (अर्थ - खाली) नाम से प्रचलित हुआ। फिर लैटिन, इटैलियन, फ्रेंच आदि से होते हुए इसे अंग्रेजी में 'जीरो' (zero) कहते हैं।
सर्वनन्दि नामक दिगम्बर जैन मुनि द्वारा मूल रूप से प्रकृत में रचित लोकविभाग नामक ग्रंथ में शून्य का उल्लेख सबसे पहले मिलता है। इस ग्रंथ में दशमलव संख्या पद्धति का भी उल्लेख है।See More
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