Thursday, April 3, 2014

भारत सरकार-जनता को लुट

Photo: भारत सरकार क्यों नहीं एक राष्ट्रीय मूल्य निर्धारण अधिकरण बनाती जो ७०-80 रुपये लागत वाली सीमेंट बोरी को ३०० रुपये में बेचने से रोक सके और जनता को लुटने से बचाए....
दोस्तों, हम लोग अच्छी तरह से जानते है की सीमेंट फैक्ट्री में सीमेंट बनाने का खर्चा कितना आता है और उसे बाजार में किस भाव से बेचा ज़ा रहा है. इसमे सरकार के ही मंत्री मिलकर सीमेंट का भाव बढ़कर बिकवाते  है और उनसे जमकर वसूली की जाती है इस चक्कर में मरती है जनता क्योकि पैसा तो उसे ही देना होता है. सीमेंट कैसे बनती है-
१- सीमेंट में चूना पत्थर को पीसा जाता है और उसमे बहुत कम मात्रा में लौह अयस्क पीसकर मिलाया जाता है यही इसके मुख्य घटक होते है.
२-कोयले के पाउडर में आग लगाकर चुना पत्थर को गरम  करते है और कोयले की राख भी इसी में मिलकर क्लिंकर बनाती है.
३-इसी क्लिंकर में ५-७% जिप्सम मिलकर उसे खूब महीन पिसा जाता है और सीमेंट तैयार जो ५-६ रुपये किलो बिक रहा है.
अब आप देखिये  चुना पत्थर जो खदानों से बड़ी आसानी से उपलब्ध उसका कितना रेट होगा. वह १० पैसा किलो पड़ता है. कोयला सरकार कंपनियों को एकदम रियायती दाम पर देती है और लौह अयस्क और जिप्सम भी मिटटी के भाव ही मिलते क्योकि यह जहा होती है मिटटी के रूप में ही होती है. फैक्टरी बनाने और सीमेंट उत्पादन का कुल खर्च और मुनाफा किसी भी हालत में दूरी के अनुसार ७० रुपये से ८० रुपये ही आता है तो इसे बाजार में ३०० रुपये बोरी बेचकर जनता को लुटने का औचित्य क्या है. इसका जबाव कौन देगा. क्योकि भारत में फैक्टरी उत्पादनों का मूल्य निर्धारण करने के लिए कोई जवाबदेह संस्था ही नहीं है और सरकारे कंपनियों से जनता को लुटवाती है और नेता अपना विदेशी बैंक खाता भरते है.
हमारी जनता का इस ओर ध्यान ही नहीं जाता है या कहे की उन्हें उलझाकर रखा जाता.
सीमेंट की तरह ही अंग्रजी दवाओ में १०० गुना तक की लूट है क्योकि एक तो इसमे मोल भाव नहीं है दुसरे यह अतिआवश्यक व् आपात कालिक वस्तु है. खेती का उत्पाद बिकता है डेढ़ से दो गुना परन्तु दवाये बिकती है २० से १०० गुना लागत दामो पर क्यों..
सरकार की निति में स्पष्टता न रखना अंग्रजो की एकदम नक़ल है, १९४७ तक अंग्रेज भी एकदम यही करते थे. जय भारत, - संजय कुमार मौर्यभारत सरकार क्यों नहीं एक राष्ट्रीय मूल्य निर्धारण अधिकरण बनाती जो ७०-80 रुपये लागत वाली सीमेंट बोरी को ३०० रुपये में बेचने से रोक सके और जनता को लुटने से बचाए....
दोस्तों, हम लोग अच्छी तरह से जानते है की सीमेंट फैक्ट्री में सीमेंट बनाने का खर्चा कितना आता है और उसे बाजार में किस भाव से बेचा ज़ा रहा है. इसमे सरकार के ही मंत्री मिलकर सीमेंट का भाव बढ़कर बिकवाते है और उनसे जमकर वसूली की जाती है इस चक्कर में मरती है जनता क्योकि पैसा तो उसे ही देना होता है. सीमेंट कैसे बनती है-
...- सीमेंट में चूना पत्थर को पीसा जाता है और उसमे बहुत कम मात्रा में लौह अयस्क पीसकर मिलाया जाता है यही इसके मुख्य घटक होते है.
२-कोयले के पाउडर में आग लगाकर चुना पत्थर को गरम करते है और कोयले की राख भी इसी में मिलकर क्लिंकर बनाती है.
३-इसी क्लिंकर में ५-७% जिप्सम मिलकर उसे खूब महीन पिसा जाता है और सीमेंट तैयार जो ५-६ रुपये किलो बिक रहा है.
अब आप देखिये चुना पत्थर जो खदानों से बड़ी आसानी से उपलब्ध उसका कितना रेट होगा. वह १० पैसा किलो पड़ता है. कोयला सरकार कंपनियों को एकदम रियायती दाम पर देती है और लौह अयस्क और जिप्सम भी मिटटी के भाव ही मिलते क्योकि यह जहा होती है मिटटी के रूप में ही होती है. फैक्टरी बनाने और सीमेंट उत्पादन का कुल खर्च और मुनाफा किसी भी हालत में दूरी के अनुसार ७० रुपये से ८० रुपये ही आता है तो इसे बाजार में ३०० रुपये बोरी बेचकर जनता को लुटने का औचित्य क्या है. इसका जबाव कौन देगा. क्योकि भारत में फैक्टरी उत्पादनों का मूल्य निर्धारण करने के लिए कोई जवाबदेह संस्था ही नहीं है और सरकारे कंपनियों से जनता को लुटवाती है और नेता अपना विदेशी बैंक खाता भरते है.
हमारी जनता का इस ओर ध्यान ही नहीं जाता है या कहे की उन्हें उलझाकर रखा जाता.
सीमेंट की तरह ही अंग्रजी दवाओ में १०० गुना तक की लूट है क्योकि एक तो इसमे मोल भाव नहीं है दुसरे यह अतिआवश्यक व् आपात कालिक वस्तु है. खेती का उत्पाद बिकता है डेढ़ से दो गुना परन्तु दवाये बिकती है २० से १०० गुना लागत दामो पर क्यों..
सरकार की निति में स्पष्टता न रखना अंग्रजो की एकदम नक़ल है, १९४७ तक अंग्रेज भी एकदम यही करते थे. जय भारत

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